Phir Aayi Haseen Dillruba Review : ” फिर आई हसीन दिलरुबा ” बनाने के पीछे मुख्य कारण था इसके पहले वाली फिल्म ” हसीन दिलरुबा ” का हिट होना. और ” हसीन दिलरुबा ” के हिट होने के पीछे कारण थे फिल्म का क्लाइमेक्स और उस फिल्म की बेहतरीन मार्केटिंग. जिसने दर्शको का ध्यान खिंचा था. और साथ ही उस फिल्म से दिनेश पंडित नाम के लेखक को फेमस कर दिया था. ( जबकि यह कोई असली लेखक है ही नहीं )
जहां पहले वाली फिल्म ” हसीन दिलरुबा ” में दिनेश पंडित के उपन्यास का जिक्र करते हुए फिल्म अपने निष्कर्ष तक पहुंची थी. वहीँ ” फिर आई हसीन दिलरुबा ” में लगता है जैसे फिल्मे में दिनेश पंडित नहीं, दिनेश पंडित में फिल्म है. इतनी बार इस नाम का जिक्र होता है की यह सुनना अटपटा और उबाऊ लगने लगता है. साथ ही इस फिल्म में कई बार कई प्रकार के Twist & Turns आते है मगर कोई भी इतने प्रभावी नहीं लगते की कहानी को मजबूत बना सके.
अगर आपको तगड़े Twist & Turns वाली फिल्में देखनी है तो आगे लिंक पर क्लिक करे – दिमाग घूमा देने वाली 10 बेस्ट हॉलीवुड मूवीज
ऐसा लगता है की पहली वाली फिल्म के क्लाइमेक्स से प्रभावित होकर फिल्म के मेकर्स इतने उत्साही हो गए की इस फिल्म में उन्होंने कई सारे Twist & Turns डाल दिए. जो अति का शिकार हो गए. और उनके होने नहीं होने से कोई ख़ास फरक नहीं पड़ता है. ठीक वैसे ही जैसे जिमी शेरगिल के किरदार का इस फिल्म में होने या नहीं होने से कहानी में कोई ख़ास फरक नहीं पड़ता.
जिमी शेरगिल का किरदार इसलिए लिखा गया क्योकि फिल्म में जिमी शेरगिल को मेकर्स लेना चाहते होंगे या फिल्म में कोई अन्य इंटरेस्टिंग किरदार चाहिए होगा. क्योकि अगर फिल्म में यह किरदार नहीं भी होता तो इसका काम तो पहली फिल्म से ए.सी.पि अशोक रावत ( आदित्य श्रीवास्तव ) नाम के पुलिस इंस्पेक्टर कर ही रहे थे. बस फरक इतना था की अशोक रावत इस केस को जबरदस्ती निजी बना रहे थे, जबकि मोंटी उर्फ़ मिर्त्युजन्य पासवान का इस केस में घुसना ही निजी कारण था.
क्योकि मोंटी का रिश्ता नील और रिशु से पहले से था. नील से ज्यादा खास था इसी कारण वो किसी भी हालत में रिषभ उर्फ़ रिशु को ढूढना चाहते है. मगर यह किरदार जिस उम्मीद से इस कहानी में गुसाया गया है. वो उम्मीद पूरी होती दिखाई नहीं देती. ना इस किरदार की एंट्री अच्छी है और ना ही एग्जिट. कुछ संवाद जो जिम्मी शेरगिल के हिस्से में यह सोचकर आये की इससे किरदार में वजन बढेगा. मगर अटपटे से संवाद जिम्मी शेरगिल के मुंह जुबानी भी अच्छे नहीं लगते.
वहीँ फिल्म की हसीना उर्फ़ रानी की साड़ियाँ और बालों में फसे गुलाब के अलावा इस किरदार में भी कुछ भी Romanticizing नहीं लगता. ऐसा लगता है की यह फिल्म आखिर क्यों ही बनाई गयी है. रानी का किरदार इस फिल्म में किसी टीवी सीरियल की बहुरानी की तरह बनके रह गया. जिसके जीवन में सिर्फ कष्ट और पीड़ा ही बची रह गयी. जिसकी सास इस बार अभिमन्यु बनकर आया. जो रानी के पीछे पीछे भागता रहता है. जो इतना सिंगल है की रानी के प्यार में कुछ भी करने को तैयार है यह मालूम होते हुए की अंत में उसे घंटा कुछ नहीं मिलने वाला है.
साथ ही रानी का Guilty Pleasure उर्फ़ रिशु का किरदार इस फिल्म में कुछ कुछ बदलाव लिए दिखता है. इसमें वो जहां शुरुआत में कहीं कहीं चतुर किस्म के दिखाई पड़ते है वहीँ जैसे जैसे कहानी आगे बढती है हमें पहली फिल्म वाला मासूम, सच्चा रिशु दिखाई पड़ता है. जो की इस किरदार के लेखन की तारीफ है. क्योकि इस किरदार के व्यक्तित्व में कुछ ख़ास बदलाव नहीं किये भले ही उसने एक क़त्ल किया हो. और पुलिस को बेवकूफ बनाया हो.
तो दोस्तों देखा जाए तो ” फिर आई हसीन दिलरुबा ” इंटरेस्टिंग होने का भरपूर प्रयास करती है. जो हो नही पाती. जिसके किरदारों से कोई ख़ास लगाव नहीं हो पाता. आखिर लगाव हो भी कैसे इतने Chu** कीरदार जो है. अरे यार अपनी सुहागरात की रात कौन बंदा अपनी पत्नी के साथ लूडो खेलता है.
साथ ही फिल्म में एक पुलिसवाली औरत दिखाई जाती है. जिसका लहजा उत्तरप्रदेश की पुलिस का कम मराठी ज्यादा लगता है.
इस फिल्म को मैंने देखा क्योकि मुझे उम्मीद थी की यह पहली फिल्म की तरह अच्छी फिल्म होगी. मगर इसने मुझे बिलकुल भी प्रभावित नहीं किया. आखिर कैसे यह फिल्म पसंद आती. ना इसके गाने अच्छे है, ना किरदारों को अच्छे से बुना गया है, ना कहानी में डेप्थ है, कहानी को इंटरेस्टिंग बनाने के लिए कुछ भी लिख देना एक प्रकार के कमजोर लेखन का उदाहरन है. साथ ही इस फिल्म में आगरा शहर दिखाया गया है जो की इसलिए आगरा दिखाई पड़ता है क्योकि आगरा में मौजूद ताजमहल को अलग अलग एंगल से दिखाया गया है. बाकी इसके अलावा फिल्म देखकर साफ़ पता चलता है की फिल्म किसी स्टूडियो में शूट की गयी है. तो आखिर कैसे यह फिल्म प्रभावित करती.
बॉलीवुड की लीजेंड फिल्म ” रेस 3 ” के बाद यह फिल्म ही ऐसी आई है जिसमे इतने सारे ट्विस्ट एंड टर्न है. और दोनों फिल्मों में कोई भी काम नहीं करता. कुछ भी अचंभित नहीं करता. क्योकि आपको एहसास हो जाता है की कहानी को इंटरेस्टिंग बनाने के लिए लेखक की कलम अब सुविधाजनक ( Convenience ) पटरी पर चढ़ चुकी है. जिससे अब कुछ भी कहीं भी कैसा भी घुमाव आ सकता है, चाहे वो कहानी से जुड़ा हो या नहीं.
यही होता है जब आप जबरदस्ती कोई फिल्म बनाते हो. हर कहानी , हर फिल्म की एक जर्नी होती है. जो एक ख्याल से उपजती है. मगर जब कीटनाशक डालकर फसल बोई जाती है तो फसल ख़राब और नुकसानदायक ही पैदा होती है.
तो दोस्तों ” फिर आई हसीन दिलरुबा ” एक फीकी फिल्म है. जो मजेदार होने का प्रॉमिस करती है. मगर झूटी हसीन दिलरुबा की तरह धोखा देती है. अगर आप भी मेरी तरह इस दिलरुबा के जाल में धोखा नहीं खाना चाहते तो यह फिल्म आप देखना टाल सकते हो. और अपने जीवन के दो घंटे बचा सकते हो. बाकी देखना है तो कुछ ज्यादा की उमीद मत रखना. फायदे में रहोगे.
Phir Aayi Haswwn Dillruba फिल्म को आप नेट्फ्लिक्स पर देख सकते हो.